Thursday, October 4, 2012

एक बेमिसाल विद्रोही

एस मुलगांवकर
रामनाथ गोयनका ने मौत को भी आसानी से नहीं जीतने दिया,ठीक उसी तरह जैसे सारी जिंदगी उन्होने बिना संघर्ष किए कभी हार नहीं मानी.तीन साल से स्वास्थ्य उनका साथ नहीं दे रहा था. सांसें कभी भी उनका साथ छोड सकती थीं.पिछले छह महीने में दो बार डाक्टर उन्हे कुछ ही घंटे का मेहमान करार दे चुके थे.लेकिन उन्होने जबरदस्त संघर्ष करके मौत का मुह फेर दिया.ब्रीच कैन्डी अस्पताल के एक डाक्टर का तो कहना था कि इस व्यक्ति ने न केवल आयुर्विज्ञान बल्कि प्रकृति को भी अंगूठा दिखा दिया. गोयनका जी ने अपनी जीवनधारा के बारे में कई भविष्यवाणियों को झूठा साबित किया. इसकी इंडियन एक्सप्रेस से बेहतर मिसाल क्या हो सकती है.तीस के दशक में उनहोने यह अखबार शुरू किया.तब न इसका संपादन ठीक से होता था और न छपाई.हिंदू और मद्रास मेल जैसे तगडे प्रतिद्वंदियों से इसका मुकाबला था.एक्सप्रेस को बहुत कम विज्ञापन मिलते थे और इसका प्रसार भी कम था. तब किसी को यकीन नहीं था कि एक्सप्रेस टिका रहेगा.अक्लमंदी का तकाजा था कि अखबार को बंद कर दिया जाता. लेकिन गोयनका जी ने इसे स्वीकार नहीं किया.एक विदेशी शासन के खिलाफ उनका प्रखर राष्ट्रवाद भी उनके लिए नुकसानदेह साबित हो रहा था.फिर भी उन्होने प्रकाशन जारी रखा.आखिर में उन्ही की जीत हुई पर यह जीत उनके लिए वर्णनातीत थी.आगे पढ़े - गोयनका जी अंत तक एक बेमिसाल विद्रोही रहे. इंडियन एक्सप्रेस के जम जाने के बाद भी वे हमेशा किसी न किसी लक्ष्य के लिए किए जाने वाले संघर्ष में अपना सब कुछ दांव पर लगा देने से कभी पीछे नहीं हटे. 1975 में जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो वे कलकत्ता के एक अस्पताल में दिल के दौरे से जूझ रहे थे.कई महीने तक वे नीम-बेहोशी में रहे. जब वे ठीक हुए तो पाया कि सरकार ने एक्सप्रेस पर अपना निदेशक मंडल थोप दिया है.सभी ने उन्हे सलाह दी कि वे शांति से काम लें. अगर उन्होने जल्दबाजी में कुछ किया तो उन्हे ही नुकसान होगा क्योंकि देश में इमरजेंसी लगी हुई है.पर गोयनका जी ने जो किया वो काफी हद तक भौचक्का कर देने वाला था.उन्होने मद्रास से दिल्ली की उडान भरी और सरकारी बोर्ड को भंग करके चेयरमेन के रूप में बागडोर संभाल ली. सरकार के पास इमरजेंसी अधिकार थे लेकिन वह चुप रही.गोयनका जी ने सब कुछ दाव पर लगाकर इस तरह ये लडाई जीत ली.कुछ दिनों बाद उन्हे फिर ऐसे ही हालात का सामना करना पड़ा.सरकार ने दीवानी और फौजदारी के 250 मुकदमे उनपर लाद दिए.कुछ निजी तौर पर उनके खिलाफ थे और कुछ एक्सप्रेस के, ताकि उनपर हर तरह का दबाव डाला जा सके. फिर उन्हे वही सलाह दी गई कि सरकार से टकराना पागलपन होगा.गोयनका जी ने एकबार फिर इस सलाह की उपेक्षा की और कई साल तके वे इन दबावों को झेलते रहे. यहां गोयनका जी के अपूर्व साहस की चर्चा करना अनावश्यक है.एक राष्ट्रीय संस्थान के रूप में इंडियन एक्सप्रेस को सिर्फ साहस के आधार पर ही खडा नहीं किया जा सकता था.इस अखबार को स्वतंत्र विचारों का बनाने के बारे में उनका इरादा शुरू से ही पक्का था इसीलिए राजनैतिक रूप से कांग्रेसी होते हुए भी उन्होने कभी भी अखबार को पार्टी का मुखपत्र नहीं बनने दिया. न ही उन्होने उस पर अपने विचार थोपे.वे अपना वास्ता अखबार की व्यापक नीति से ही रखते थे.अखबार की स्वतंत्रता को मजबूत करने वाले किसी भी विचार और सुझाव का स्वीकार करने के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे. जब उनसे कहा गया कि अमेरिकी और यूरोपीय शैली के लोकपाल को अपनाना सार्वजनिक हित और मूल्यधर्मी पत्रकारिता के पक्ष में होगा तो उन्होने इसे उत्साह पूर्वक लिया. इसपर अमल क्यों नहीं हो सका इसके पीछे साजिश और स्वार्थ की कहानी है जिसे मै यहां पेश नहीं करूंगा. दोबारा उन्हे एक संपादकीय ट्रस्ट बनाने का सुझाव दिया गया जो निर्धारित नीति से अखबार के हटने के खिलाफ सतर्क रहता. गोयनका जी ने इसपर अमल शुरू तो कियी पर शायद ज्यादा उम्र के कारण वे इसके लिए जरूरी गतिशीलता नहीं जुटा पाए और इस विचार के विरोधी कामयाब हो गए. वृद्धावस्था और और खराब स्वास्थ्य ने उस शानदार विद्रोही से यह कीमत वसूल की.आज का दिन भारतीय पत्रकारिता के लिए सर्वाधिक दुखद दिन है. (आज रामनाथ गोयनका की पुण्य तिथि है .उनके निधन पर पांच अक्तूबर १९९१ को इंडियन एक्सप्रेस के संपादक एस मुलगांवकर ने जो लिखा वह एक बार फिर दिया जा रहा है )

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