Tuesday, October 23, 2012

जाना एक और कबीर यानी दा का

अंबरीश कुमार छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता का एक दौर आज ख़त्म हो गया .दा राजनारायण मिश्र नहीं रहे ,यकीन नहीं होता .वे ग्रामीण पत्रकारिता के पुरोधा थे .स्टेट्समैन का ग्रामीण पत्रकारिता का पुरुस्कार भी उन्हें मिला .पर वे इस सबसे ऊपर थे .वे पत्रकारिता में कबीर परम्परा के वाहक थे .फक्कड़ों जैसा जीवन गुजारा .छतीसगढ़ में अपनी मुलाकर कैसे हुई यह याद नही पर जब एक लेख पर उन्हें गिरफ्तार किया गया तो हम भी साथ खड़े हुए .जनसत्ता लांच हुआ था और वह भी पूरे तेवर में .दा ने कहा वे जनसत्ता से जुड़ेंगे और सीखेंगे भी तो नए साथियों को सिखाएंगे भी पर कोई पारश्रमिक नहीं लेंगे .राज कुमार सोनी ने उनके बारे में बहुत कुछ बताया था .अख़बार का संपादक पहली बार बना था वह भी जनसत्ता का .बहुत कुछ सीखना था दा ने पहला पाठ सिखया सिखाया स्टाफ में मुस्लिम जरुर हो छतीसगढ़ के लोग उत्सव प्रेमी होते है कोई त्यौहार आया तो बिना बताए छुट्टी चले जाएंगे . ऊनके इस सुझाव से कई बार जनसत्ता का रायपुर संस्करण बिना किसी दिक्कत के निकलता रहा .वे मुझे छत्तीसगढ़ के गाँव गाँव ले गए और कई बार गाँव में रुका और खाना पीना सब हुआ .वे शाकाहारी थे और शराब भी नहीं पीते कई तरह की आर्युवैदिक दवा लेते थे .पर किसी की आवभगत में कोई कमी ना रह जाए यह जरुर ध्यान रखते .वे जनसत्ता के रायपुर संस्करण के हेड मास्टर की तरह थे जिसका नाम रजिस्टर में भले न हो पर समूचा स्टाफ मेरे बाद उन्हें ही जानता . मुझे याद है किस तरह उन्होंने किसानो की ख़ुदकुशी पर महासमुंद से खबरे कराई .शिखा दास को दा के कहने पर ही रखा था जिसने किसानो पर जब खबरे शुरू की तो जोगी सरकार के कई अफसर नाराज हुए और शिखा पर हमला हुआ तब भी राजनारायण मिश्र और समूचा जनसत्ता शिखा के साथ खड़ा हुआ .यह दा की मानवीय संवेदना को दर्शाता था .यह एक उदाहरण है वे आए दिन गाँव ,किसान और खेती मजदूरी से जुड़े सवालों को उठाते उनका कालम '' साधो जग बौराना ..बहुत लोकप्रिय था .इसके साथ ही उन्होंने साहित्य संस्कृति की आंचलिक प्रतिभाओं को भी जोड़ा ,परदेसी राम वर्मा उदाहरण है .बहुत कम लोगो को पता होगा कि छत्तीसगढ़ में सत्ता से टकराव के बाद जब इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन ने मेरा तबादला दिल्ली किया तो मैंने अख़बार छोड़ने का मन बना लिया .दा ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने मेरे लिए दिल्ली से एक पत्रिका निकालने का प्रबंध कराया और साफ़ कहा कि किसी तरह की आर्थिक दिक्कत नहीं आने दी जाएगी .वह पत्रिका आज भी निकल रही है जिसका पहला संपादक मुझे उन्होंने बनवाया था .पर एक्सप्रेस प्रबंधन ने मेरी इच्छा की जगह पोस्टिंग की बात मानी और मै इस समूह से जुड़ा रहा .इसमे शेखर गुप्ता और महाप्रबंधक जीआर सक्सेना की बड़ी भूमिका रही .जीआर मेरे तब भी मेरे मित्र माने जाते थे और आज भी है .बहरहाल उस संकट के दौर में मेरे साथ दा जिस मजबूती से खड़े हुए वह उनकी दृढ इच्छा शक्ति का प्रतीक था .इस तरह के लोग आज बहुत कम मिलेंगे जो दूसरों के लिए समर्पित हो .दा ने अपन क ओ बहुत कुछ सिखाया है .वे ही मेरी ख़बरों का संपादन करते थे .वे ही छतीसगढ़ी शब्दों का अर्थ भी बताते .उन्होंने ही बस्तर दिखाया ,उन्होंने ही महासमुंद के किसानो की भुखमरी और पलायन पर लिखने को प्रेरित किया .उन्होंने लड़ने का भी सलीका सिखाया तो लिखने का .बहुत अफ़सोस की आज मै रायपुर में नहीं हूँ ,दा को अंतिम विदाई देने के लिए .

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