Thursday, May 24, 2012

देवदार के जंगलों में

अंबरीश कुमार यह
है ।यहाँ हवा की आवाज गूंजती है ।पहले बांज यानी ओक के घने जंगलों को पार कर आइवीआरआई परिसर में पोस्ट आफिस के पास पहुंचे तो आगे देवदार के जंगल थे । देवदार के घने दरख्तों के बीच आइवीआरआई का अतिथिगृह नजर आ रहा था तो दाहिने तरफ ब्रिटिश काल के कुछ पुराने घर ।चारो ओर सन्नाटा । यहाँ आकर डाकबंगले के पास सड़क खत्म हो जाती है क्योकि आगे जाने का कोई रास्ता नही है । साथ चल रहे निंटू को इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी उसे खिलौने कि एक दुकान कि तलाश थी जहाँ से वह एक नया वेब्लेट ले सके ।मौसम साफ़ था और पहले कुमायु मंडल विकास निगम के रेस्तरां में कुछ देर बैठे और आलोक ,नमिता और मैंने लेमन टी से अपने को तरोताजा किया ।आकाश और निंटू ने कुछ नहीं लिया । फिर सामने के डाक बंगले में गए जहाँ पहले भी कई बार रुकना हो चुका है । यह डाक बंगला १८७२ में बना था और यहाँ पहुँचने के लिए कोई सड़क भी नहीं थी । सड़क तो कुछ दशक पहले ही बनी है । डाक बंगले का कुछ हद तक कायाकल्प हो चुका है । ब्लू हेवन वाले सूट पूरी तरह नीले रंग में रंग हुआ था यहाँ तक कि चादर कम्बल और तकिए भी नीले रंग के थे । बीच का बरामदा भी बदला हुआ था । चौकीदार गोपाल सिंह खानसामा की भी जिम्मेदारी निभाता है । खाना का आर्डर पहले ही देना पड़ता है क्योकि शाम ढलते करीब एक किलोमीटर दूर कुछ दुकाने जिन्हें बाजार कह सकते है वह बंद हो जाती है । गोपाल सिंह ने यह भी बताया कि मुर्गा बनवाना हो तो और पहले बताना होगा । फार्म का मुर्गा दो सौ रुपए किलो मिलेगा और देशी पांच सौ रुपए । बनवाने का सौ रुपए अलग से । बाकी सामान्य खाना अस्सी रुपए हर एक के हिसाब से । यहाँ रुकने के लिए नैनीताल के कलेक्टर आफिस से बुकिंग करानी पड़ती है । डाक बंगले के सामने बड़ा बगीचा है जहा रात में एक तरफ अल्मोड़ा तो दूसरी तरफ रानीखेत के पहाड़ियों की रोशनी नजर आती है । बगीचे से लगे देवर के दरख़्त पहाड के नीचे दूर तक जाते दिखते है । शाम ढलते ही ठंढ बढ़ जाती है और सन्नाटा छा जाता है । नैनीताल से जो सैलानी आते है वे लौट जाते है और सामने पर्यटन विभाग में ठहरे सैलानी अपने कमरों में कैद हो जाते है । डाक बंगले के भीतर की ढकी हुई बालकनी बैठने के लिए बेहतर जगह है जहा से बाहर का सारा दृश्य दीखता है और ठंढी हवा से भी बचे रहते है । शाम के कार्यक्रम के लिहाज से यह बहुत अच्छी जगह है । दाहिने से एक पगडंडी जंगलो के बीच जाती दिखती है जो आगे चल कर एक पहाड़ी घर पर रुक जाती है । यह घर भी अब चार कमरों के होटल में बादल चुका है । जिस पगडंडी से यहाँ तक आए वह और संकरी होकर जंगल के बीच से चढती हुई पहाड पर चली जाती है । सर्दियों में यहाँ काफी बर्फ गिरती है इसलिए तब पुरे इंतजाम के साथ आना बेहतर होता होता है ,एक बार फंस चुका हूँ । पर सबसे बेहतर समय मानसून का होता है जब धुंध और बादलों के बीच यह डाक बंगला काफी रहस्मय सा नजर आता है । मानसून के समय सत्बुन्गा से मुक्तेश्वर तक सुर्ख सेब से लदे पेड़ों को देख कोई भी सम्मोहित हो सकता है । इसके अलावा जमकर बारिश होती है और आसमान साफ होते ही एक तरफ बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियां सामने होती है तो दूसरी तरफ नहाए हुए बागान और जंगल । लगता है किसी चित्रकला के बीच खड़े हो । इससे पहले सत्बुंगा से गुजरे तो ड्राइवर ने पाइनियर अखबार के संपादक चन्दन मित्र का सड़क के किनारे बन रहा घर दिखाया जहा पाइनियर का बोर्ड भी लगा था । इस इलाके में बहुत से साहित्यकार और पत्रकार भी बस गए है । महादेवी वर्मा और रविंद्रनाथ टैगोर के यहाँ रहने की वजह जो प्राकृतिक खूबसूरती थी वह अभी भी काफी हद तक बची हुई है । हालाँकि नव धनाढ्य सैलानी इसे बर्बाद करने में कोई कसर नही छोड़ रहे है । अंधाधुंध और विशाल निर्माण के लिए देवदार ,बांज.बुरांस ,चीड से लेकर सेब आडू के बगीचे काट दिए जा रहे है । यह इस अंचल कि दूसरी तस्वीर है ।

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