Tuesday, January 27, 2015

जेलर बाबूजी का जाना

अंबरीश कुमार बाबूजी यानी पापा से करीब बारह साल बड़े ताऊ जी जिन्हें हम बचपन से बाबूजी और ताई जी को बड़ी अम्मा कहते रहे है ।पहले मम्मी गई फिर बड़ी अम्मा और आज तडके करीब पंचानबे साल के बाबूजी के जाने की खबर मिली ।पापा को नहीं बताया है क्योंकि वे बीमार है और सदमा लग सकता है ।ये भी अजीब है क्योंकि कुछ महीनों पहले तक दोनों के बीच कड़वाहट थी गाँव की जमीन को लेकर । बाबूजी अंग्रेजों के राज से जेलर रहे है और लाइसेंसी बंदूक भी रखते रहे है जिसका ज्यादा इस्तेमाल शिकार के लिए हुआ पर जब जमीन का विवाद बढ़ा तो इस बंदूक की नाल उन्होंने पापा की तरफ तान दी थी ।इसे लेकर पापा बहुत आहत हुए और फिर गांव जाना छोड़ दिया । अपना गाँव देवरिया जिले के बरहज के पास कपरवार घाट से पहले राजपुर गांव के नाम से जाना जाता है । पापा ने जो एक नया घर सत्तर के दशक में उन्होंने बनवाया था उसे औने पौने दाम में एक संपन्न यादव परिवार को बेच दिया जानबूझ कर ।वजह यह कि ताकतवर यादव परिवार सामने रहेगा तो आए दिन विवाद होगा ।यह सब गांव के झगड़ों में आम मानसिकता है जिससे वे उबार नहीं पाए ।यह सब आज याद आया । घर वालों पर बहुत कम ही लिखा है ।इसकी एक वजह संकोच भी रही है ।बाबूजी के जाने के बाद लगा कि बचपन से अबतक की एक फिल्म जैसे गुजर गई हो ।अपना लगाव पापा की बजाए बाबूजी से ज्यादा रहा है जिसकी कई वजह रही है ।अपने घर में पापा का बहुत कड़ा अनुशासन झेलना पड़ता ।वे पहले रेलवे में इंजिनियर थे । बचपन में आलमबाग के लंगड़ा फाटक के सामने के रेलवे की बड़ी कोठी के लान में शाम को ठीक से तैयार होकर बैठना पड़ता था क्योंकि तब पापा के आने समय होता था और वे हमें जूते मोज़े में ढंग से कढ़े हुए बाल के साथं देखना चाहते थे ।शर्ट भी पैंट के भीतर और गेटिस भी लगी हो ।वर्ना पिटाई भी हो सकती थी ।यह घर बहुत बड़ा था और दिन भर इसके अहाते में कुत्ते के पिल्लों के साथ खेलने के बाद शाम को मम्मी तैयार कर बाहर बिठा देती ।ऐसे में बाबूजी के यहाँ जाना बहुत अच्छा लगता क्योकि तब जेल परिसर शहर से बाहर जंगल के करीब हुआ करता था ।लखनऊ ,गोंडा ,बहराइच आदि उदाहरण है ।खेलने और आवारगर्दी के लिए तब बड़ी जमीन मिल जाती थी और बगीचे और खेत भी ।बाबूजी खाने के शौकीन थे और एक दो दिन छोड़कर रोज ही मांसाहारी व्यंजन बनता था पर बहुत तेल मसाला नही होता था ।बाबूजी शिकारी थे और तब शिकार पर कोई प्रतिबंध भी नहीं था ।उनके घर में बाघ ,चीतल हिरन की छाल पर ही बैठा जाता था जो पूजा घर से लेकर बैठक में रखे सोफे पर भी सजी रहती थी ।जेल के जेलर के ये बड़े बड़े घर और जेल परिसर की दुनिया अपने को बहुत पसंद आती थी ।अब समझ में आता है कि सारे मौसमी फल जामुन फालसा ,फिरनी ,आम ,बढ़हल से लेकर शहतूत तक समय पर मिल जाते थे और जी भर कर खाने की छूट थी । तीतर ,बटेर ,हिरन से लेकर जंगली सूअर का स्वाद भी बाबूजी के शिकार के शौक के कारण वही मिला ।इतनी आजादी और तरह के स्वाद ने बाबूजी के साथ रहने का लोभ बढ़ा दिया था ।फिर ऐसी आजादी अपने ननिहाल यानी बढहल गंज के पास मरवट गाँव में मिलती थी जहां ज्यादा समय आम के बड़े बगीचे में बिताता था ।बगीचा भले आम का कहलाता था पर उसकी शुरुआत जामुन के ऐसे तिरछे पेड़ से होती थी जिसके ऊपर दस बारह फुट तक दौड़ कर चढ़ जाता था ।और अंत में करीब पचास साल पुराना बेलउवा आम का पेड़ था जिसके आम, सिंदूरी रंग के बेल के आकार के होते थे । मौसम में सोना भी बगीचे में होता था और टपकने वाले आम इकट्ठा कर पानी भरी बाल्टी में डालते थे ।पर यह मौका मुंबई से गर्मी की छुट्टी में आने पर मिलता था ।मुंबई से पापा जब लखनऊ में सीएसआईआर के शोध संसथान में शिफ्ट हुए तो बाबूजी के यहाँ हर छुट्टियों में जाना नियम सा बन गया ।बाद में जब पापा बहुत नाराज होते तो भागकर बाबूजी के पास पहुँचता और उनसे शिकायत भी करता ।तब लगता था वे पापा से बड़े है और उन्हें डांट फटकार कर समझा देंगे ।कई बार यह फार्मूला काम भी आया ।पर बाद में जब गाँव जमीन का विवाद हुआ तो दोनों के संबंध बिगड़ गए ।गांव से अपना सम्बन्ध भी ख़त्म सा हो गया ।शुरूआती दौर में गांव में नया बगीचा हमने ही लगाया था ।पापा ने लखनऊ से अनिल के जरिए आम अमरुद कटहल आदि के कई पेड़ भेजे थे बस से ।बाद में छांगुर बाबा ने पूरे विधिविधान से इन पेड़ों को लगवाया ।आज भी इस बगीचे में हम लोगों के लगाए पेड़ में बहुत अच्छे फल आते है पर अपने को कभी नसीब नही हुए ।अपना यह गांव सरयू / घाघरा नदी के किनारे है और उस पार देवार में खेत पड़ते है ।एक ज़माने में लोग कलकत्ता से स्टीमर से आते जाते थे ।एक बार छोटी दादी के निधन पर बढ़हल गंज से हम भी स्टीमर से आए थे ।तब खपरैल का बड़ा विशाल घर था और सामने का बरामदा बहुत ही विशाल जिसपर रात में बीस पच्चीस चारपाई बिछ जाती थी ।सामने राजपुर नाम की छोटी सी रियासत के सामने लगे ताड़ और कदम के पेड़ रात में लहराते हुए डरावने लगते थे ।घर के भीतर सिर्फ शाकाहारी भोजन बनता था और जो महराजिन खाना बनाती थी वह चूल्हे से रोटी दूर से थाली में फेंकती ताकि उसे छुआ न जा सके । जब मछली या झींगा आता तो बगल में रहने वाली मल्लाहिन ' लोचन बो ' के घर खाना बनता और खाना खाने भी वही जाना पड़ता ।लोचन बो यानी लोचन की मेहरारू अभी भी जिन्दा है जबकि लोचन बहुत पहले टीबी की वजह से गुजर चूका है ।लोचन कलकत्ता में काम करता था और वाही से टीबी लेकर गांव लौटा था ।पर ज्यादा दिन चला नहीं ।आज यह सब एक फिल्म की तरह याद आ रहा है ।पिछले महीने ही तो लखनऊ में पोती की शादी करने बाबूजी आये थे । पापा से भी मिले और गले लग कर रोए ।फोटो में मफलर पहने बाबूजी जो आज तडके हम सबको छोड़ गए।

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