Sunday, June 2, 2013

बादलों का लैंडस्केप

अंबरीश कुमार मौसम के चलते कई दिन बाद कैमरा लेकर निकला । बादल भी कई तरह के लैंडस्केप बना देते है । यही देख रहा था । सिंधिया स्टेट के बगीचे के पीछे की पहाड़ियों पर खेलते हुए बादल देखने के लिए खड़ा हो गया ।आसपास कई तरह के पक्षी मंडरा रहे थे जिनमे सबसे ज्यादा संख्या गौरेया की थी ।जो पक्षी मैदानी इलाको में अमूमन नहीं दिखते वे सभी यहाँ नजर आ जाते है ।पक्षियों के बारे में जानने के लिए एक छोटी सी पुस्तक भी ले आया हूँ ।उसी में पढ़ा एक खास प्रजाति का उल्लू जिस जगह आसन जमा लेता है वही वह जम जाता है अंतिम समय तक ।समझ नहीं आया ।आस्पताल के सामने अखरोट के सूखे पेड़ पर एक उल्लू नजर आया था पर दुबारा नहीं दिखा । अचानक गहरे नीले रंग की करीब डेढ़ फुट पंख वाली एक बड़ी चिड़िया सामने नजर आई और कैमरे को फोकस करता तब तक किसी जहाज की तरह लैंड करती हुई नीचे की पहाड़ी की तरफ जा चुकी थी । मौसम में ठंढ थी इसलिए जैकेट पहना था पर फिर भी राहत नही मिल रही थी । सामने की पगडंडियों से उतारते बच्चे दिखाई पड़े जो फल पैक करने वाले गत्ते लेकर उतर रहे थे । पहाड़ी फल पकने लगे है और तल्ला में तो पहले से पाक जाते है क्योकि वह घाटी में है और तापमान कुछ ज्यादा रहता है । बागवानो की कमाई इसी सीजन में होती है और रात भर पैकिंग और ट्रकों पर फलों की पेटियां चढाने का काम होता है ।यह वही तल्ला है जहां के कौवों पर निर्मल वर्मा ने कहानी लिखी तो अभिनेता दिलीप कुमार ने एक साक्षात्कार में कहा था कि अगर हीरों नही बनता तो रामगढ़ में सेब के बगीचों से पक्षी भगाता रहता । पर मौसम में हुए बदलाव के चलते और मुनाफे ने सेब को तल्ला से बेदखल कर दिया अब वह आडू ज्यादा होता है और अच्छी प्रजाती खड़ी देशो को निर्यात हो जाति है जिसकी कीमत सेब से ज्यादा मिलती है और बची हुई आडू की छोटी प्रजाती लखनऊ दिल्ली के बाजार में चली जाती है । कई और फल जिनपर ध्यान नहीं दिया जा रहा है उनमे एक नाशपाती की प्रजाती बब्बूगोसा है जो करीब चार सौ ग्राम का एक होता है ।करीब तीन साल पहले यहां से दिल्ली गया तो दर्जन भर बब्बूगोसा ले गया था और एक आलोक तोमर को दिया तो दूसरा कृष्ण मोहन सिंह को ।दोनों नाराज कि क्या एक फल दिया जाता है ,बहरहाल जब उसका स्वाद लिया तो हैरान रह गए ।गजब की मिठास और सेब से किसी मायने में कम नहीं । पर यह मैदानी इलाकों में कम मिलता है । यहां बहुत कम खाई जाने वाली कौव्वा नाशपाती ही दिल्ली लखनऊ के बाजार में चालीस पचास रूपये किलो मिलती है जो यहां से बोरों में जाती है और यहां के लोग उसे कौवों के लिए छोड़ देते थे इसलिए नाम भी ऐसा पड़ा । प्लम और खुबानी जब पेड़ पर पकने लगती है तो उसे संभाला नहीं जा सकता और तोड़ने से पहले ही ज्यादातर फल जमीन गिर जाते है ।यह अपने राइटर्स काटेज के पीछे के हिस्सों में हर साल होता है जंहा काले प्लम का पुराना पेड़ खड़ा हुआ है ।

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