Sunday, March 23, 2014

पूर्वोत्तर की दो दर्जन सीटों पर घमासान

पूर्वोत्तर की दो दर्जन सीटों पर घमासान इंफाल से रीता तिवारी अपनी धनी सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक संपदा से भरपूर देश के पूर्वोत्तर राज्यों को अक्सर गलत वजहों से ही सुर्खियां मिलती रही हैं. देश के बाकी हिस्सों के साथ पूर्वोत्तर में भी तमाम छोटे-बड़े राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल कमर कस कर चुनावी अखाड़े में कूद चुके हैं. लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में इनके बारे में कोई चर्चा ही नहीं है. शायद इसकी एक वजह यह है कि इन सात राज्यों को मिला कर लोकसभा की कुल 24 सीटें ही हैं और राष्ट्रीय राजनीति में इनकी कभी कोई निर्णायक भूमिका नहीं रही. लेकिन वजूद की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी अबकी इलाके से अधिक से अधिक सीटें जीत कर दिल्ली की गद्दी की दावेदारी को मजबूत करने के लिए मैदान में उतरी हैं. अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघालय में नौ अप्रैल को मतदान होगा जबकि मणिपुर में दो चरणों में नौ और 17 अप्रैल को वोट पड़ेंगे. अरुणाचल में तो विधानसभा चुनाव की 60 सीटों के लिए भी वोट पड़ेंगे. असम में मतदान की प्रक्रिया तीन चरणों में 24 अप्रैल को पूरी होगी. पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार कहे जाने वाले असम में लोकसभा की सबसे ज्यादा 14 सीटें हैं. यही वजह है कि दिल्ली के सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों की निगाहें इसी पर टिकी हैं. लेकिन सिर मुंडाते ही ओले पड़ने की तर्ज पर पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाली असम गण परिषद (अगप) के साथ आखिरी मौके पर चुनावी तालमेल नहीं हो पाने की वजह से भाजपा को शुरूआत में ही झटका लगा है. पिछले चुनाव में दोनों के बीच तालमेल था. भाजपा ने तब असम से पहली बार सबसे ज्यादा चार सीटें जीती थीं. भाजपा से नाता टूटने के बाद अगप ने तेरह सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए हैं. उधर, सत्तारुढ़ कांग्रेस का बोड़ो पीपुल्स फ्रंट के साथ तालमेल जस का तस है. कांग्रेस नेता और उसके स्टार प्रचारक राहुल गांधी ने पिछले सप्ताह पूर्वोत्तर के चार राज्यों में चुनाव प्रचार किया. इस कड़ी में सबसे पहले उन्होंने अरुणाचल प्रदेश में एक रैली को संबोधित किया. अपने खानदान का जिक्र करते हुए राहुल ने कहा कि वर्ष 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अरुणाचल को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया था और उनके पिता राजीव गांधी ने इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया. राहुल ने अरुणाचल के महिलाओं और युवकों को देश की मुख्यधारा में शामिल करने का वादा किया और राज्य के विकास की दिशा में केंद्र सरकार के सहयोग का ब्योरा दिया राज्य की प्राकृतिक सुंदरता और खनिजों की उपलब्धता का जिक्र करते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा कि ने कहा कि इस राज्य में पूरे देश को पनबिजली की सप्लाई करने की क्षमता है. ध्यान रहे कि अरुणाचल प्रदेश में बनने वाले दर्जनों बड़े बांध और उनसे होने वाला विस्थापन अबकी चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा है. असम की कम से चार सीटों पर अल्पसंख्यक वोट निर्णायक हैं. बाकी सीटों पर भी अपने अलग-अलग जातीय समीकरण हैं. पिछले पांच वर्षों के दौरान असम जातीय हिंसा और अलग राज्य की मांग में होने वाले हिंसक आंदलनों से जूझता रहा है. विपक्ष ने इसे ही अपना प्रमुख मुद्दा बनाया है. लेकिन कांग्रेस यहां कई गुटों में बंटी हुई है और उसके नेता अक्सर सरेआम एक-दूसरे के खिलाफ बयान देते रहते हैं. राज्य में कांग्रेस की जीत की राह में यही सबसे बड़ी बाधा है. अल्पसंख्यकों की रहनुमा होने का दावा करने वाले आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआयूडीएफ) अल्पसंख्यकों वोटों में सेंध लगाने के लिए मैदान में है. भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भी असम के सिलचर में अपनी रैली के दौरान हिंदी कार्ड खेल चुके हैं. सिलचर इलाका बांग्लादेश से सटा है और यहां बांग्लादेशी शरणार्थियों की समस्या काफी गंभीर है. असम में उस मुद्दे पर काफी हिंसक आंदोलन हो चुका है और अब भी यह समस्या जस की तस है. इलाके में अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघायल तो काफी हद तक शांत हैं. लेकिन बाकी राज्यों में उग्रवाद की समस्या सिर उठाए खड़ी है. उग्रवाद का आलम यह है कि मणिपुर की दो सीटों के लिए दो चरणों में वोट पड़ेंगे. इन राज्यों में लगभग हर चुनाव में उग्रवादी भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे हैं-वह चाहे आतंकवादी गतिविधियों के तौर पर हो या फिर राष्ट्रधारा में शामिल होने की ललक लिए चुनाव मैदान में कूदने के. इस बार भी नजारा अलग नहीं है. खासकर असम में उग्रवादी संगठन उल्फा के कई पूर्व नेता मैदान में हैं. असम में कांग्रेस ने पिछली बार आठ सीटें जीती थीं. केंद्र की एनडीए और यूपीए सरकार के कामकाज के तुलनात्मक अध्ययन पर एक श्वेतपत्र जारी करने वाले मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का दावा है कि अबकी यहां पार्टी की सीटें बढ़ेंगी. वे कहते हैं कि चुनावी सर्वेक्षणों का मतदान से कोई सीधा वास्ता नहीं होता. पड़ोसी पश्चिम बंगाल से प्रभावित होकर यहां भी भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने कई सितारों को टिकट दिए हैं. इनमें बीजू फूकन और जीतू सोनोवाल शामिल हैं. अब रहा सवाल मुद्दों का, तो तमाम राज्यों में कुछ स्थानीय मुद्दे रहे हैं. उके अलावा तमाम राज्य दशकों से उग्रवाद की चपेट में हैं. ऐसे में आम जनजीवन तो प्रभावित हुआ ही है, यह इलाका देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले विकास की होड़ में काफी पीछे छूट गया है. ऐसे में पहले की कई चुनावों की तरह इस बार भी दो प्रमुख मुद्दे हैं---सामान्य स्थिति की बहाली और विकास. मणिपुर की एक छात्रा टी. सोनम सिंह कहती है, ‘हम उग्रवाद से आजिज आ चुके हैं. इसलिए अबकी विकास के लिए अपना सांसद चुनेंगे.’ असम की राजधानी गुवाहाटी में एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर वीरेन महंत कहते हैं, ‘उग्रवाद और विकास ही दशकों से चुनावी मुद्दे रहे हैं. हर पर्टी वादे तो लंबे-चौड़े करती है. लेकिन बाद में उनको भूल जाती है.’ तो क्या अबकी इन लोगों की उम्मीदें पूरी होगी ? लाख टके के इस सवाल का जवाब तो चुनाव के बाद ही मिलेगा. फिलहाल तो तमाम दल अपनी कमीज को दूसरों से सफेद बताते हुए मैदान में उतर गए हैं.जनादेश इलेक्ट लाइन

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