Sunday, December 9, 2018

मुंबई में लखनऊ देखना है तो आएं !

आलोक जोशी दो हिस्सों में लिखा था। मगर अब पूरा एक साथ लगा रहा हूँ। और जो लोग रह गए उनके लिए एक ख़बर। मजाज़ की दास्तान का एक और शो है मुंबई में। अगले शनिवार पंद्रह दिसंबर । बायकला में। ------------------------- मैंने पहले भी कहा हिमांशु बाजपेयी अपने आप में चलता फिरता लखनऊ हैं। रामगढ़ में एक मुख्तसर सी मुलाक़ात। फेसबुक पर कुछ देखा देखी और कभी कभार फोन पर कुछ सवाल जवाब। यही था मेरा और हिमांशु का रिश्ता। अतुल तिवारी के शब्दों में लखनऊ का लड़का। लखनऊ के बुजुर्ग लड़के नए वालों को ऐसे ही बुलाते हैं। तो जनाब ख़बर मिली कि हिमांशु आ रहे हैं और मजाज़ की दास्तान ला रहे हैं। मन हुआ कि चलो सुना जाए। भाई उस लड़के को क्यों न सुना जाए जो लखनऊ से दिल लगाए है और जिसके दिल में बसा लखनऊ साथ साथ दुनिया का दौरा करता है, अपना रंग बखेरता है। तो हम सुनने गए थे हिमांशु को। लगातार दो दिन। शनिवार और रविवार। दास्तान ए आवारगी यानी क़िस्सा मजाज़ लखनवी का। Dastan-e-Aawaargi ( A Dastangoi Performance by Himanshu Bajpai) शनिवार बांद्रा के कुकू क्लब में फ़ुल हाउस। पहले तो हिमांशु ने सिखाई रिवायत दास्तान गोई की, फिर ये भी बताया कि यहाँ तालियाँ बजाना गुनाह होता है। दिल खुश हो तो दाद दीजिए। मगर दाद की भी कुछ शर्तें हैं, वरना वाह वाह को आह आह में बदलते वक़्त नहीं लगता। ज़ाहिर है, महफ़िल को अदब सिखाना भी तो लखनऊ का फ़र्ज़ है। तो फ़र्ज़ अंजाम दिया गया और शुरू हुई -दास्तान ए आवारगी। बस शुरू होने का ही होश है, बाद उसके तो हम बस घूँट घूँट भरते गए और मजाज़ दिल में उतरते गए। कब कहें वाह! कब न कहें, सोचने की कोई ज़रूरत ही न रही। मजाज़ को जानना हो, गहराई से पहचानना हो और अपने दिल में उतारना हो, तो बस हिमांशु की ये दास्तान सुननी काफी है। और अगर आपने ये न सुनी तो जितना भी मजाज़ पढ़ा सुना हो, सब नाकाफ़ी है। तकलीफ़ सिर्फ ये कि कुकू क्लब में महफ़िल की शुरुआत में ही सख़्त हिदायत दी गई कि मोबाइल बंद कर दें और फ़ोटो खींचने या वीडियो बनाने की जुर्रत न करें। मगर बाद में लगा कि ये तकलीफ़ दरअसल कोई तकलीफ़ नहीं दिमाग का वहम था। ...2 ... आप पूछेंगे कि क्यों था दिमाग का वहम? तो जवाब अगले दिन मिला। जब भवन्स के एस पी जैन कॉलेज में हिमांशु Himanshu Bajpai फिर पहुँचे दास्तान ए आवारगी के साथ। और हम भी पहुँचे। इस बार Namita, Vineeta और Siddharth के साथ। यहाँमाहौल कुछ फ़र्क़ था। Ajay Brahmatmaj जी भी मिल गए और Ila Joshi भी। महफ़िल थी चौपाल। आग़ाज़ ही हुआ अतुल तिवारी की एक शानदार तक़रीर से जिसने ज़मीन बना दी, हवा में नमी घोल दी और हाज़रीन नाज़रीन को बेताब कर दिया सोचने के लिए कि आख़िर अब क्या बचा है जानने को जो हिमांशु की दास्तान में मिलेगा? महफ़िल की शान में चार चाँद लगाने दास्तान सुननेवालों की अगली क़तार में गुलज़ार साहब भी मौजूद थे। फिर शुरू हुआ क़िस्सा असरारुल हक़ ‘मजाज़’ लखनवी का। और फिर महफ़िल पर रंग छाने लगा। यहाँ बहुत से थे जो घूँट घूंट पी रहे थे और वाह वाह बरसा रहे थे। बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डांवाडोल! यहाँ से लेकर, आवारगी को बख़्शी गई इज़्ज़त और न जाने कितनी हसीनाओं के ख़्वाब के तारे, आँख के काजल, दिल के क़रार और अरमानों के क़ुतुबमीनार मजाज़ लखनवी की शायरी में औरत के मेयार पर जो और जिस अंदाज में हिमांशु ने रौशनी डाली वो क़ाबिले ग़ौर नहीं, क़ाबिले तारीफ नहीं सिर्फ क़ाबिले रश्क है। -हाय हिमांशु, ऐसा कभी हम क्यों न कर पाए! ये दूसरी शाम भी दिल में उतर गई, एक जगह घर कर गई। और अब समझिए कि रिकॉर्डिंग न करने की हिदायत तकलीफ़ के बजाय तोहफ़ा क्यों थी। क्योंकि लगातार दो शाम एक ही दास्तान दोबारा सुनने में भी कहीं यूँ नहीं लगा कि ये तो कल ही सुना था। दोनों बार पूरा मजा आया, नए सिरे से आया। कुछ बहुत फर्क भी था। हाजरीन को देखकर अंदाज भी बदल रहा था तो सुननेवालों का मिज़ाज भी। अाखिर में गुलज़ार साहब ने दो लाइनें बोलीं मगर सब कुछ कह दिया। उन्हीं की दो लाइनें - हिमांशु , कहा गया कि आप मजाज़पर तालिबे इल्म ( विद्यार्थी) हैं, मगर आप तो मजाज़ पर पूरे प्रोफ़ेसर निकले। - मार्क्सिज्म के बारे में और कुछ भी कहा जाए लेकिन अगर मार्क्सिज्म ने हमें एक मजाज़ दिया तो उसकी कामयाबीके लिए इतना ही काफी है। बधाई Himanshu Bajpai और शुक्रिया Dastan-e-Aawaargi ( A Dastangoi Performance by Himanshu Bajpai) के लिए।साभार

No comments:

Post a Comment