Saturday, October 28, 2017
जंगल में शिल्प का सौंदर्य
अंबरीश कुमार
जंगल में भटकते भटकते शाम हो चुकी थी .पहाड़ पर पैदल चलने की वजह से थकावट ज्यादा थी .वैसे भी कल सुबह रायपुर से जल्दी निकलना हुआ और जो नाश्ता पैक कराया वह वैसे का वैसा ही रात तक पड़ा रहा .कान्हा जंगल के चिल्फी द्वार के पास पहले खाने का कार्यक्रम बना पर सतीश जायसवाल के साथ बाहर से आए मित्रों के साथ ही दोपहर के भोज में शामिल होने का फैसला हुआ .बाद में बैठना था ,एक दूसरे से परिचय और फिर अपने अनुभव साझा करने थे .इसलिए कान्हा मुक्की जंगल के द्वार से चिल्फी लौट आए .
सुबह कवर्धा के डाक बंगले से चले तो अनिल चौबे ने रसोइये को रात के खाने के लिए कह दिया था क्योंकि कब लौटेंगे यह तय नहीं था .सिर्फ रोहू मछली और भात बना कर रखने को कहा गया था .कवर्धा में नदी और ताल की मछलियां काफी मिलती हैं .वैसे तो समूचा छतीसगढ़ ही लबालब ताल तालाब वाला अंचल है .चार मील चले तो कोई न कोई बड़ा ताल मिल ही जाएगा और रोहू तो बंगाल तक जाती है .यही वजह है कि दो दिन से एकल समय रोहू चावल ही रात के खाने में चल रहा था .खैर चले तो पहला पड़ाव भोरमदेव था .यह छतीसगढ़ का कला तीर्थ भी कहलाता है .गोंड आदिवासियों के उपास्य देव माने जाते हैं और उन्ही के नाम पर यह मंदिर बना है .वे महादेव के रूप हैं .छतीसगढ़ के पूर्व मध्य काल यानी राजपूत काल में बने सभी मंदिरों में यह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है .जिसका निर्माण लक्ष्मण देव राय ने कराया था .मंदिर की बाहरी दीवार पर नायक नायिकाओं ,अप्सराओं और नर्तक नर्तकियों की प्रतिमाओं के साथ मिथुन मूर्तियां भी है .इसी वजह से इसे छतीसगढ़ का खजुराहों भी कहा जाता है .चारो ओर जंगल से घिरा पहाड़ है तो सामने के ताल में लगा कमल ध्यान खींचता है .दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी में यह अंचल कला संस्कृति के क्षेत्र में कितना समृद्ध था इसका पता भोरमदेव मंदिर की इन प्रतिमाओं को देख कर पता चलता है .मंदिर के दक्षिण में करीब आधा मील दूर एक शिव मंदिर है जिसे मंडवा महल के नाम से जाना जाता है .इसका निर्माण 1349 ईस्वी में फणी नागवंशी शासक रामचंद्र का हैहयवंशी राजकुमारी अंबिका देवी के साथ विवाह के उपलक्ष्य में कराया गया था .पश्चिम की तरफ मुख किए यह मंदिर आयताकार है .इस मंदिर के भी बाहरी भाग में मिथुन मूर्तियां नजर आती है .जंगल के बीच शिल्प के इस सौन्दर्य को देख कोई भी चकित हो सकता है .
भोरमदेव का यही अंचल ऐसा है जो अपने छतीसगढ़ प्रवास के दौरान छूट गया था .तब बस्तर की तरफ ज्यादा जाना होता था खबर की वजह से .खैर कुछ देर बाद भोरमदेव से आगे बढे तो फिर जंगल के बीच काफी देर चलना पड़ा .कान्हा गेट पर नेटवर्क भी नहीं मिला न ही वायरलेस से जंगलात विभाग के किसी आला अफसर से बात हो सकी .हम चिल्फी लौटे तो पंगत पर लोग बैठ चुके थे .एचएमटी प्रजाति के धान से तैयार चावल ,अरहर की दाल ,आलू की सब्जी और चटनी परोसी गई .खाने के बाद सतीश जायसवाल और बाहर से आए लेखक ,पत्रकार और फिल्मकार बैठे .अपने अनुभव साझा किए .तय हुआ करीब बारह किलोमीटर दूर पहाड़ पर एक आदिवासी गांव में आदिवासियों के साथ कुछ घंटे बैठा जाएं .उनसे संवाद हो .उनका रहन सहन और खानपान देखा जाए .साथ भोज हो और रात में लौटा जाए .पर अल्लू चौबे पैदल नहीं चल सकते थे इसलिए जिस जगह तक वाहन जंगल में गए वे वही बैठ गए .हम सब आगे बढे .जंगल का रास्ता और बीच में नदी नाला भी .पर आदिवासियों ने जिस उत्साह से करमा नृत्य से अपना स्वागत किया उससे थकान महसूस नहीं हुई .काफी देर गांव के कुछ घरों को देखते रहे .मुझे अंधेरा होने से पहले लौटना था क्योंकि भोरमदेव अभ्यारण्य का द्वार शाम छह बजे के बाद बंद कर दिया जाता है जानवरों की वजह से .दूसरे चौबे को अकेला जंगल में छोड़ कर आया था .लौटा तो वे गाडी में सोते मिले .अभी अंधेरा नहीं हुआ था पर जंगल पार करते करते रौशनी जा चुकी थी .बहुत प्रयास के बावजूद समय पर भोरमदेव गेट पर नहीं पहुंच पाए और लंबे रास्ते से लौटना पड़ा .रात के करीब आठ बजे डाक बंगला में लौटे .
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