Sunday, August 24, 2014

घुट घुट कर दम तोड़ रही है पाताल गंगा

अंबरीश कुमार मुंबई से करीब सत्तर किलोमीटर दूर रायगढ़ जिले में मुंबई गोवा राजमार्ग पर हरे भरे वर्षा वन जैसे अंचल में एक नदी मिलती है जिसका नाम है पाताल गंगा । यह नदी पुणे में सहाद्री पर्वत श्रृंखला से खंडाला से कुछ दूरी पर निकलती है और कोंकण अंचल में अरब सागर के धरमतर खाड़ी में अवरा गाँव के पास समुद्र ने समा जाती है । करीब तीन दशक पहले तक यह नदी जो इस अंचल के मछुवारों के लिए वरदान बनी हुई अब अभिशाप बन गई है । अब मछुवारे मछली पकड़ने के लिए बहुत दूर जाते है और उनकी खेती भी चौपट हो गई है । कोई नदी किस तरह घुट घुट कर मरती है और किस तरह एक नदी की मौत के बाद आसपास का जीवन प्रभावित होता है यह पाताल गंगा के किनारे आकर महसूस किया जा सकता है । इसकी वजह है सत्तर के दशक में इस नदी के उद्गम स्थल पर ही कई रासायनिक और दावा बनाने वाले कारखानों का शुरू होना था । महाराष्ट्र औद्योगिक विकास मंडल ने रायगढ़ जिले के खालापुर तालुका को रासायनिक उद्योगों के लिए आरक्षित कर दिया जिसके बाद सौ से ज्यादा उद्योग इस इलाके में स्थापित किए गए । इनमे सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र की नामी कंपनियां शामिल है जो अपना रासायनिक कचरा नदी के उद्गम स्थल के पास ही पानी में डाल रही है ।इसका असर पिछले तीन दशक में यह हुआ कि नदी की मछलियां ख़त्म हो गई और करीब तीन हजार मछुवारे परिवार संकट में आ गए । मछुवारे न सिर्फ इस नदी की मछलियों पर खुद निर्भर थे बल्कि वे जरुरत के बाद बची मछलियों को बेचकर गुजारा करते थे ।अब वे इस नदी से मछली ही नहीं पकड़ पाते है क्योंकि रासायनिक कचरे की वजह से वे ख़त्म हो चुकी है । मछुवारों की जीविका इस नदी पर निर्भर थी । आपटा से आवरा खाडी के लगत तीन हजार से ज्यादा मछुवारा परिवार इसपर अपना गुजारा करते थे। इस नदी के पानी का इस्तेमाल साठ से ज्यादा गाँव के लोग करते है । पर्यावरण और खेती पर भी असर आपटा से आवरा तक की 35 हजार हेक्टर जमीन पर धान की खेती होती थी ।नदी को बचाने के आंदोलन में जुटे मदन मराठे के मुताबिक एक दौर में रावे , दादर, केलवना, दिघाटी, आवरा से लोग पीने का पानी लेन के लिए खारपाडा गांव तक नौका लेकर आते थे और उपर से आने वाला पातालगंगा का मीठा पानी ले जाकर अपना गुजारा करते थे ।पर बाद में इस नदी के तटपर बसे रासायनिक उद्योगों ने अपना असर दिखाना शुरू किया ।इनु उद्योगों से निकले रासायनिक कचरे की वजह से सन 1976 से पाताल गंगा का पानी प्रभावित होने लगा ।इसका पता तभी चला जब बड़ी संख्या में मछलियां मर गई ।यह नदी अपने उद्गम स्थल से अरब सागर तक चालीस किलोमीटर तक का ही सफ़र करती है पर इसके अथाह और मीठे पानी की वजह से बहुत अच्छी खेती इस अंचल में होती थी और जैव विविधिता भी देखने वाली थी ।पास ही एक बड़ा पक्षी विहार है जिसके पक्षी इस नदी के पानी पर निर्भर है ।धान की मुख्य फसल के अलावा करीबन दस हजार हेक्टर क्षेत्र मे बड़े पैमाने पर शाक सब्जियां उगाई जाती थी थे। गाँव मुंर्बइ के भायखला सब्जीमंडी में रोज यहां से ट्रक के ट्रक सब्जी लेकर जाते थे । इसमें भिंडी, खीरा , खरबुज, टमाटर, मिरची, करेला , लौकी, पालक मेथी आदि प्रमुख थी ।पर अब इस नदी के किनारे कुछ नहीं पैदा हो पा रहा है ।इस अंचल में काफी ज्यादा बरसात होती है इसलिए नदी से दूर के इलाकों में अभी भी शाक सब्जियों की अच्छी खेती हो जाती है ।मुंबई से गोवा सड़क से जाएं तो जगह जगह पर खीरा , तुरई ,करेला आदि का ढेर लगाए महिलाएं दिख जाएंगी ।पर नदी के आस पास यह नहीं मिलेगा । पानी का संकट चावणा जल वितरण योजना के जरिए पहले चालीस गांव को पानी मिलता था आज सिर्फ आठ गांव को पानी मिल पा रहा है ।पर यह पानी भी इतना प्रदूषित हो चूका है कि गाँव के लोगों को टीबी ,पीलिया समेत तरह तरह कि बीमारी हो रही है। धान के खेत में प्रदूषित पानी आने की वजह से दर्जनों गाँव प्रभावित हो चुके है ।इनमे नदी के किनारे बसे केलवणे, दिघाटी, बारापाडा, तारा, जीते ,दुष्मी , खारपाडा, साई, रावे , वषेणी, आवरा, गोवठणे, आपटा गुलसुदा , लाडीवली, चावणा, चावंढा आदि गांव में धान की फसल पूरी तरह चौपट हो गई है । मछुवारे अब नदी से बहुत दूर जाकर मछली पकड़ते है ।कई परिवार पलायन कर चुके है और कर करने वाले है । नदी बचाने के लिए जन आंदोलन पाताल गंगा को बचाने के लिए नब्बे के दशक से ही आंदोलन चल रहा है और इसके दबाव में कुछ ठोस कदम भी सरकार ने उठाए ।पाताल गंगा प्रदूषण निर्मूलन कृति समिति बनी गई और इस महाराष्ट्र की प्रमुख समाज सेवी मंगला बेन पारिख ने इसका नेतृत्व किया ।कुछ समय पहले उनका निधन हो गया और संतोष ठाकुर इस आंदोलन को संभाल रहे है ।संतोष ठाकुर के मुताबिक आंदोलन जारी है क्योंकि उद्योग आज भी प्रदूषित पानी नदी के उपरी स्रोत में डाल रहे है ।ख़ास बात यह है कि इस आंदोलन में सभी राजनैतिक दलों के लोग शामिल है यह बहुत महत्वपूर्ण है ।इसमें .शेतकरी कामगार पक्ष ,कांग्रेस ,भाजपा और शिवसेना भी शामिल है। वर्ना जल जंगल जमीन बचाने के ज्यादातर आंदोलन से कांग्रेस और भाजपा विकास के नाम पर दूरी बनाए रखते है ।उदाहारण है छतीसगढ़ का बस्तर अंचल जहां जंगल काट कर कारपोरेट घरानों को जमीन दिए जाने का भाजपा और कांग्रेस कंधे से कन्धा मिलकर समर्थन करते है ।ऐसे में पाताल गंगा नदी को बचाने के लिए जो राजनैतिक चेतना पनपी है वह महत्वपूर्ण है । साभार -नवभारत टाइम्स

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