Saturday, June 19, 2021

ऐसा भी क्या बरसना !

ऐसा भी क्या बरसना ! अंबरीश कुमार
गांव में तीन दिन से लगातार बरसात .तीस घंटे से एक मिनट के लिए भी नहीं थमी यह बरसात .बाहर निकलना तो दूर बरामदे से भी बाहर जाना मुश्किल .बरसात कभी तेज होती है तो कभी धीमी होती है पर रुक नहीं रही .सब जगह पानी पानी .बिजली भी चली गई है .भवाली की तरफ जाना था पर तीन दिन से टलता ही जा रहा है .जाड़ों में इस बार न बर्फ गिरी न ढंग की बरसात हुई .इसलिए यह बरसात जरुरी भी थी .पहाड़ की बरसात हो या मैदान की आपको बांध देती है .पर बरसात के सैलानी भी कुछ अलग किस्म के होते हैं .लखनऊ के एक साथी आ रहे हैं .पहले उन्होंने महेशखान के जंगल में डाक बंगले का एक सूट बुक कराया पर प्रयास असफल रहा .बताया गया डाक बंगला दस पंद्रह दिन तक बुक है .किलबरी का जंगलात विभाग का डाक बंगला मिल सकता है .बरसात में कच्चे रास्ते वाला महेशखान का डाक बंगला भी न मिले तो समझ लेना चाहिए कि बरसात के शौकीन सैलानी भी काफी संख्या में हैं . मैदान में ऐसी बरसात अब कम ही होती है .साठ के दशक से सत्तर के दशक के बीच गांव से लेकर मुंबई जैसे महानगर की बरसात देखी है .गर्मी की छुट्टियों में गांव आते तो आंधी पानी सब मिलता .बरसात बरसात में गोरखपुर के बडहल गंज से एक डेढ़ मील की दूरी पर गांव जाना बहुत अच्छा लगता था .रानी का बाग़ से होते हुए .खेतों में पानी भरा रहता था .बाग़ में आम की देर से पकने वाली प्रजातियाँ के साथ जामुन का आकर्षण भी होता .शाम होते ही मेढकों की आवाज गूंजने लगती .गांव में बिजली नहीं आई थी लालटेन और ढिबरी का दौर थे .रात के खाने में भूसे से निकाला गया पका हुआ आम और रोटी .रोटी कुछ अलग होती क्योंकि जौ मिली हुई होती . गांव की बरसात में मिटटी पर नंगे पैर चलना होता तो मुंबई में गम बूट पहन कर . याद आती है साठ के दशक की मुंबई की वह बरसात जिसमें स्कूल से भीगते हुए लौटना होता .मुंबई के चेंबूर में भाभा एटामिक एनर्जी की कालोनी में पहली मंजिल पर फ़्लैट था .पापा भाभा एटामिक एनर्जी में इंजीनियर थे और सेंटर की बस से सुबह दफ्तर जाते थे .पर उससे पहले मुझे स्कूल भेज दिया जाता था या यूं कहें तो ठेल दिया जाता .बरसात में .मुंबई की बरसात में सिर्फ छाते से काम कहां चलता .घर से स्कूल के रास्ते में दो ठीहे पड़ते जिसे लेकर उत्सुकता रहती .एक राजकपूर का देवनार काटेज तो दूसरा आरके स्टूडियो .स्टूडियों से ही कुछ दूर पर गोल्फ का मैदान होता था .रेन कोट ,गम बूट और छोटा सा छाता भी .सर पर कैप .डकबैक की बरसाती में जेब भी होती और घुटने से नीचे तक कवर कर देती .गम बूट के बिना तो सड़क पर चल ही नहीं सकते क्योंकि करीब आधा फुट तक पानी वेग से बहता रहता .पर अपने को न तो रेन कोट भाता न छाता .और कुछ अपने और साथी थे शरारती किस्म के .हम सब लौटते तो पूरी तरह भीगे हुए .तब की मुंबई कोठियों और चाल वाली थी .कोठियों के आगे दीवार की जगह हैज होती .संभवतः राज कपूर के देवनार काटेज में मेहदी जैसी कोई हैज ही थी .लताएँ और फूल भी तरह तरह के .बरसात के मौसम में जितने रंगों की गुलमेंहदी मैंने मुंबई में लगी देखी वैसी कहीं और नहीं मिलती .स्कूल से लौटते समय गुलमेहदी के कुछ पौधे उखाड़ लाते .इन्हें एक ग्लास स्याही डाल कर छोड़ देते और कुछ देर में गुलमेहदी के पारदर्शी तने को रंग बदलते देखते .ये सब तबके खेल थे . अब वह बरसात नहीं होती जों सत्तर और अस्सी के दशक में होती थी .तब जो बरसात होती थी वह जमकर होती थी .कई दिन तक .रेनी डे का दौर आता था .लखनऊ में एक बार हफ्ते भर तक रेनी डे रहा क्योंकि बरसात थम ही नहीं रही थी .अब तो शायद रेनी डे की छुट्टी होती ही नहीं होगी .फिर समुद्र तट पर डरा देने वाली बरसात भी देखी तो वह तो उस तूफ़ान का भी इंतजार किया जिससे बचने की उम्मीद छोड़ दी गई थी .हम महाबलीपुरम के बीच रिसार्ट पर अकेले थे .तूफ़ान लेट होता जा रहा था और अंत में वह मद्रास से टकराने की बजाये आंध्र के नेल्लोर से टकराया .हम लोग बच गए .पर ऐसी भीषण बरसात और ऐसा बिगड़ा हुआ समुद्र कभी नहीं देखा था .अपना काटेज ठीक समुद्र के सामने था और सामने की दीवार सीसे की .लगता समुद्र की लहरे बिस्तर तक पहुंच जाएँगी .न फोन न बिजली .रिशेप्शन तक जाना भी मुश्किल .

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