Wednesday, November 1, 2017

जंगल में एचएमटी का भात और चटनी

अंबरीश कुमार भोरमदेव जंगल से होते हुए चिल्फी घाटी पार कर कान्हा गेट पर पहुंच चुके थे .हल्की बरसात से जंगल भीगा भीगा था .हरा भरा और खाली पड़ा रास्ता अच्छा लग रहा था .बीच बीच में अल्लू चौबे कोई फल या मिठाई के लिए बैग तलाशते तो ध्यान भटक जाता था .वे शुगर कम न हो इस वजह से कुछ देर बाद हल्का नाश्ता या फल आदि ले ले लेते .कवर्धा से चले तो डाक बंगले के रसोइये को निर्देश दे दिया था कि सिर्फ सरसों वाली रोहू और भात बना कर रखे ,आते समय देर हो सकती है क्योंकि जंगल का रास्ता अगर शाम को बंद हो गया तो फिर लंबा रूट लेना पड़ेगा .और रात में हुआ भी वही .खैर हम आगे बढे .दोपहर में हमें भोजन के समय चिल्फी में जंगलात विभाग के डाक बंगले में पहुंच जाना था .कार्यक्रम के आयोजकों ने बता रखा था कि भोजन के बाद बैठना है 'आपसदारियां ' कार्यक्रम में और उसके बाद एक बैगा आदिवासी गांव में जाना है .पर जंगल में घूमने का अपना जो पूर्व अनुभव रहा है उसे देखते हुए सुबह ही लंच पैक करा लिया गया था ताकि कोई दिक्कत न आए .जिन लोगों को शुगर की दिक्कत हो वे इसे समझ सकते है .समय पर खाना न मिलने से बहुत दिक्कत हो जाती है .रास्ते में भोरमदेव मंदिर में कुछ देर रुके फिर चिल्फी घाटी की तरफ चल पड़े .यह घाटी छतीसगढ़ का कश्मीर कहलाती है हालांकि ऐसा कुछ नजर नहीं आया .पर जंगल अभी भी अपने बचपन में है .कुछ समय पहले ही इसे भोरमदेव अभ्यारण्य में बदला गया है .इसलिए जंगल कम बगीचा सा ज्यादा नजर आता है .साल सागौन के पेड़ है पर बहुत बड़े नहीं हुए है .जंगलात विभाग वालों ने बताया कि जानवर है पर बाघ की मौजूदगी कम नजर आती है .कभी कभार कान्हा की तरफ से कोई भटकता हुआ बाघ इस तरफ आ जाए तो बात अलग है .फिर भी यह अभ्यारण्य का रास्ता सुबह छह बजे खुलता है और शाम छह बजे बंद कर दिया जाता है .रात में किसी को भी भीतर जाने की इजाजत नहीं है . जंगल पार करते करते दिन के दो बज चुके थे और हम कान्हा के चिल्फी गेट पर पहुंच चुके थे .कुछ तकनीकी दिक्कत आई क्योंकि वायरलेस से जंगलात विभाग के किसी अफसर से संपर्क नहीं हो पा रहा था .मोबाइल में कोई सिग्नल भी नहीं था .कान्हा का कोर क्षेत्र यही से शुरू हो रहा था .कुछ देर जंगल में घूमे .चौबे बोले ,भूख लग रही है .दाल भात खाने की इच्छा है .जो खाना पैक था उसमे सब्जी पराठा ही था जिसे खाने की कोई इच्छा नहीं थी .तय हुआ बैठक स्थल पर चल कर भोजन किया जाए .जंगल से बाहर निकले और मंडला की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ गए .जंगलात विभाग का डाक बंगला कुछ आगे थे .पर खाने का इंतजाम बगल में .गेट पर पहुंचे तो देखा लोग पंगत में बैठकर खाना खा रहे हैं .हल लोग बरामदे में रखे तखत के पास बैठे तो नजर जनसत्ता मुंबई के पुराने सहयोगी दीपक पांचपोर पर पड़ी .वे बड़ी गर्मजोशी से मिले और खाना परोस रही आदिवासी महिला को पत्तल लगाने को कहा .पत्तल में भात दाल आलू की सब्जी और हरी चटनी दी गई .भात बहुत स्वादिष्ट लगा तो पूछा .पता चला यह एचएमटी नाम के धान से बना है .चटनी तो अद्भुत थी .अल्लू चौबे बार बार मांग रहे थे .जी भर कर दाल भात खाने के बाद उठे तो बैठक शुरू हो चुकी थी .

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