Sunday, July 6, 2014

बरसात के वे दिन

बरसात के वे दिन अंबरीश कुमार काफी समय बाद लखनऊ में सुबह से अब तक बरसात हो रही है । इस बरसात से बहुत कुछ याद आया । शुरुआत बचपन से । देवरिया से करीब दस बारह कोस दूर अपना गाँव है । साठ के दशक में मुंबई से गाँव भेजा जा रहा था । बहुत छोटा था पर याद है मम्मी के साथ की यह यात्रा । देवरिया तक ट्रेन फिर गाँव से आई बैलगाड़ी से आगे की यात्रा । मुंबई से फर्स्ट क्लास के डिब्बे में जो समूचा डिब्बा अपना था और नहाने तक की व्यवस्था भी होती थी । खैर लम्बी यात्रा के बाद देवरिया पहुंचे तो भारी बरसात हो रही थी । तब इस स्टेशन पर बिजली नही आई थी और लैम्प लगे थे । बाहर निकले तो बैलगाड़ी वाला खड़ा था । बरसात में भीगते हुए थोड़ी दूर गए तो त्रिपाल से ढकी बैलगाड़ी में बैठे । बड़ा ही अटपटा सा अनुभव । बरसात ऐसी की थमने का नाम नहीं ले । कुछ जगह से पानी भी चू रहा था और ठंडी हवा से सर्दी लग रही थी । बैलगाड़ी की रफ़्तार से कुछ ही देर में परेशान हो गए । बैलगाड़ी में ही खाना भी हुआ और बरसात थमी तो तो कुछ देर पैदल भी चला । कुछ घंटो बाद गाँव पहुंचे थे तो राहत मिली । बैलगाड़ी से दूसरा सफ़र एक बरात का था जो बरहज के पास रुद्रपुर से चैनवापुर गाँव तक का था । पर यह सफ़र रोचक था क्योंकि बहुत से बच्चे साथ थे ,बरसात थी और रस्ते में आम के बगीचे लगातार पड़ रहे थे । टपके हुए आम तो मिल ही रहे थे जो नहीं भी टपके थे उन्हें हम पत्थर से टपका दे रहे थे । दरअसल बैलगाड़ी पर बरात का राशन और तम्बू कनात जाजिम दरी बर्तन आदि सब था जो अब टेंट वाले देते है । तब तीन दिन की बरात होती थी । भीगते हुए इस यात्रा का जो अनुभव हुआ वह आज भी याद है । तब गाँव भी गाँव जैसा ही होता था शहर का असर खासकर पक्के मकान आदि बहुत कम होते थे । बरसात में बगीचे में ज्यादा मजा आता था । बचपन के चेम्बूर कालोनी में गुजरा । मुंबई में बरसात कैसी होती है यह सभी जानते है । गमबूट ,बरसाती और छाता अभी रोज लेकर जाना होता था । पर जब बरसात हो तो सब उतर का भीगने का मजा लिया जाता । रास्ते में फूल के छोटे छोटे पौधे जो तरह तरह के रंग वाले होते कई बार उन्हें भी उखाड़ लाता ताकि घर के पास लगा दिया जाए । भीगने का ज्यादा सुख मुंबई में ही मिला । बड़े हुए तो लखनऊ विश्वविद्यालय में भी बरसात के दिन यादगार रहे । इसी दौर में एक सीनियर छात्रा से दोस्ती हुई तो समूचा जुलाई और अगस्त उसी को समर्पित हो गया ।भीगते हुए रिक्से से दिलकुशा कालोनी तक जाना होता था और फिर लौट कर अपनी सीडीआराआई कालोनी लौटना होता था जो टैगोर मार्ग पर आर्ट्स कालेज के बगल में था । बहुत सी फिल्मे देखी । तबकी एक फिल्म याद है सावन को आने दो ।लखनऊ छूटा तो पहली नौकरी बंगलूर में लगी और वहां की बरसात और गजब की । मुंबई की तरह अचानक और मुसलाधार बरसात के बाद तापमान इतना गिर जाता कि स्वेटर की जरुरत पड़ती । लालबाग गार्डन के पास जेसी रोड पर दफ्तर था तो पास में ही ठहरने की व्यवस्था । रात का खाना पई विहार नाम के मारवाड़ी रेस्तरां में होता ।मालिक संपादक रंजीत सुराना की काली अम्बेसडर की वजह से बरसात से कई बार बचे तो कई बार कार ना होने की वजह से भीगे भी ।तब लगातार मद्रास जाना होता था और वहां की बरसात का भी आनंद उठाया । बरसात में भीग कर कर बार सोभाकांत जी के घर 59 गोविन्दप्पा नायकन स्ट्रीट भी पहुंचे । बंगलूर के बाद ढंग की बरसात सन दो हजार में छतीसगढ़ में मिली । अभी सविता ने बताया कि एक बार रायपुर में सत्रह दिन लगातार बरसात हुई । तब कई बार अपनी मारुती शंकर नगर के पास स्थित गायत्री नगर में घर जाते हुए पानी में फंस जाती थी । प्रकाश होता अपने पडोसी से और कई बार उन्होंने मोटर साइकिल से घर छोड़ा । विजय बुधिया से लेकर गोपाल दस और अनिल पुसदकर भी मुझे घर छोड़ने आते थे खासकर जब ज्यादा बरसात होती थी । बरसात में ही बस्तर को देखा और लिखा । कांकेर में पहाड़ पर बने डाक बंगले में सिर्फ बरसात की वजह से रुकना पड़ा था ।बस्तर मे जगदलपुर का डाक बंगला यानी सर्किट हाउस अपना कई बार ठिकाना बना है खासकर बरसात के दिनों में । बरसात में बस्तर का सौन्दर्य निखर आता है । साल वनों के जंगल पानी में कई टापू में बदल जाते है तो चित्रकोट का झरना आपको लौटने नहीं देता । पिछले साल विधान सभा चुनाव के समय चित्रकोट की यात्रा विजय शुक्ल के साथ की तो वे बरसात का दृश्य देख कर हैरान रह गए । जारी

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