
डाक-बंगलों के साथ उनका अपना इतिहास भी जुड़ा होता है।उसके साथ उसके किस्से-कहानियों के सिलसिले भी होते हैं।उनको अनुभूति के तल पर पकड़ पाने के लिए अपने भीतर एक साथ साहित्य- बोध और सन्धान दृष्टि, दोनों का होना जरूरी होता है।यह मणि-कांचन योग होता है।डाक-बंगलों का अपना सौंदर्य होता है।उस स्थान का भी अपना सौंदर्य होता है, जहां-कहीं का होने पर भी वह डाक-बंगला विशिष्ट हो जाता है.जाने माने यायावर सतीश जायसवाल ने जल्द आने वाली अपनी पुस्तक ' डाक बंगला 'जो भूमिका लिखी है यह दो लाइन उसी की है .' डाक बंगला 'का एक अंश
धुंध से जंगल में रास्ता भी ठीक से नहीं दिख रहा था . घने जंगलों के बीच करीब पंन्द्रह किलोमीटर चलने के बाद हम जंगलात विभाग के निशानागाढा गेस्टहाउस पहुंचे. यहां बिजली नहीं है और पानी भी हैंडपंप का। दो मंजिला गेस्टहाउस के बगल में रसोई घर है जिसका रसोइया शाम होते ही सहमा-सहमा नजर आता है। घर बगल में ही है जहां एक-दो कर्मचारी और रहते हैं। पर उसके डर की वजह है बाघ के शैतान बच्चे। पता नहीं उसका भ्रम है या हकीकत। पर बाघ के इन बच्चों के आधी रात को दरवाजा थपथपाने से भयभीत रहता है। कतरनिया घाट वन्य जीव अभ्यारण के रेंजर ने बताया कि बाघ शाम से ही इस क्षेत्र में विचरण करने लगते हैं। अंग्रेजों के बनाए निशानगाढ़ा गेस्टहाउस का नज़ारा उस जमाने के नबाबों राजओं के शिकारगाह से मिलता-जुलता है। जिसके चारों ओर घने जंगल हैं और जानवरों और पक्षियों की अजीबो-गरीब आवाज सन्नाटें को तोड़ती रहती है। नीचे का बरामदा लोहे की ग्रिल से पूरी तरह बंद नजर आता है। पूछने पर पता चला कि यह बड़े जानवरों से हिफ़ाजत का इंतजम है। शाम के बाद गेस्टहाउस के आसपास निकलना भी जोखिम भरा माना जता है।
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