Sunday, October 14, 2012

सूर्यास्त से सूर्योदय तक

अंबरीश कुमार तीन दिन से पहाड़ पर हूँ .हिमालय के दर्शन तो गागर में ही हो गए थे पर मुक्तेश्वर में पहली बार हिमालय का जो रंग देखा वह अद्भुत था .शाम को सूर्यास्त के रंग तो सुबह सूर्योदय का दृश्य .सुबह करीब साढ़े तीन बजे उठ गया था क्योकि रात की बैठकी दस बजे ख़त्म हो गई थी .ठंड काफी ज्यादा है और जी डाक बंगले में चौथी बार रुका हूँ वहा सामने देवदार के घने जंगल तो आगे अल्मोड़ा शहर की रोशनी जगमगाती नजर आ रही थी .बगल के कमरे ब्लू हेवन में इला मयंक रुके तो पिंक मेमोरीज में राज और आदि .बीच के कमरे में मै .खास बात यह थी कि मेरे कमरे में रात में बैठने से पहले फायर प्लेस में लकड़ियाँ जला दी गई थी इसलिए कमरा गर्म था .दो घंटे तक एक कामेडी फिल्म देखते देखते बात चलती रही और तब उठे जब गोपाल सिंह ने खाना तैयार होने की सूचना दी .इला पहाड़ की है और उन्होंने पहाड़ी दाल चुड़कानी यानि भट्ट की दाल खाने की इच्छा जताई और हम लोगों ने भी पहली बार इसका स्वाद लिया .खाना खाने के कुछ देर बाद ही नींद आ गई और उठे तो साढ़े तीन बज रहा था .सूर्योदय देखने के साथ कुछ फोटो अपलोड करनी थी और फिर लिखने के लिए बैठना था .सभी सो रहे थे .राज को जगाया तो वे लैपटाप देने के बाद फिर रजाई में जा चुके थे .कुछ देर काम किया फिर चाय बनाई ,अकेले ही पीनी पड़ी पर कुछ गरमी आई और कुछ फोटो वाला काम भी हो गया .तभी आदित्य कमरे में आ गए और हल लोग बाहर निकले तो तेज हवा और कंपकपा देने वाली ठान में आसमान पर तारे नजर आ रहे था .फिर कमरे में लौट आये .अंग्रेजो के बनाए इस डाक बंगले की खासियत यह है कि सामने ही हिमालय की श्रृंखला नजर आती है जिसमे नंदा देवी से लेकर त्रिशूल आदि शामिल है .चारो ओर देवदार के घने जंगल है जो तेज हवा से लहराते नजर आ रहे थे . शाम को ऊपर पर्यटन विभाग के रेस्तरां में काफी पीने जब पहुंचे तो सूरज डूब रहा था और देवदार के जंगलों के ऊपर जो रंग बिखर रहे थे उसे आदि कैमरे में कैद करते जा रहे थे .हवा में इतनी ज्यादा ठंड थी कि कुछ देर बाद ही रेस्तरां के भीतर जाना पड़ा . दरअसल दो दिन पहले ही यहाँ भरी बारिश और ओले पड़े थे जिसके चलते ठंड बढ़ गई थी .हालाँकि यह मौसम हिमालय देखने के लिए सबसे बेहतर माना जाता है और स्थानीय लोग इसे बंगाली सीजन भी कहते है क्योकि दुर्गा पूजा से पहले बंगाल से काफी सैलानी इधर आते है और होटल भी भरे मिलते है .पर्यटन विभाग का होटल भी भरा हुआ था . इसकी एक और वजह गर्मी और बरसात के मौसम में हिमालय की चोटियाँ आसानी से नहीं दिख पाती है धुंध और बादल की वजह से जबकि अक्तूबर के महीने में आसमान साफ़ होता है .नवम्बर के बाद फिर मौसम बिगड़ेगा और तब इधर बर्फबारी शुरू हो जाएगी .मुक्तेश्वेर में बर्फ भी जमकर गिरती है और कई बार रास्ता भी बंद हो जाता है . यह साढ़े सात हजार फुट की ऊँचाई पर है और अगर भूल जाएँ तो डाक बंगले के बरामदे में लगा बोर्ड यह याद दिला देता है .पिछली गर्मियों में आलोक जोशी और उनके साहबजादे निंटू के साथ इस डाक बंगले में आया था .पर पहली बार बरसात के मौसम में यहाँ रुका था और धुंध में डूबा यह डाक बंगला कभी भुला नही जा सकता है .इस डाक बंगले को बने १४० साल हो चुके है और यह भी इस अंचल में इतिहास का एक महत्वपूर्ण पन्ना है . मुक्तेश्वेर में प्रवेश करते ही बांज के घने जंगल के बीच जाती सड़क लगता है जंगल में कही खो जाएगी .जंगल पर करते ही पोस्ट आफिस और बाई तरफ जोशी जी कि मशहूर चाय की दुकान नजर आती है.इसके बाद यहाँ न कोई दूकान है और न ढाबा .दोपहर में जब पहुंचे तो खानसामा ने पहले बता दिया था कि जो भी खाना खाना है पहले बता दे क्योकि दो किलोमीटर दूर से सामन लाना होगा जो शाम ढलने के बाद नहीं मिलेगा ..ज्यादातर सामान तो साथ लेकर ही चले थे क्योकि इसका अंदाजा था .अपने काफी हाउस के एक अन्य एडमिन और विश्विद्यालय के पुराने साथी सनत सिंह को भी यहाँ आना था पर तबियत ख़राब होने कि वजह से वे नहीं पहुंचे और दिनेश मनसेरा से भी मुलाकात का मौका नहीं मिला .पर जो भी साथ आए वे हिमालय और सूरज के रंगों को देख सम्मोहित थे .इला फिर बर्फ गिरने के बाद आने का कार्यक्रम बना रही है .चंचल अगर आते तो हिमालय को कैनवास पर भी उतार देते .

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